Thursday, February 27, 2014

."मुहाजिरनामा " .मुनव्वर राणा की पुस्तक समीक्षा ..... विजेंद्र शर्मा द्वारा .


समीक्षा
अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा "
समीक्षक - विजेंद्र शर्मा

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30 नवम्बर, 2008 की बात है, अज़ीज़  दोस्त गौरव भास्कर के वालिद मरहूम श्री मोहनलाल
भास्कर की याद में होने वाले मुशायरे में शिरकत करने मुनव्वर राना साहब फीरोज़पुर आये
हुए थे उन दिनों मेरी पोस्टिंग भी वहीं थी। मेरी ख़ुशनसीबी का मिज़ाज भी उस वक़्त सातवें
आसमान पर होना वाजिब था, क्योंकि मुझे मुनव्वर साहब की मेजबानी का मौक़ा फ़राहम
हुआ था।  मुशायरा रात को था सो मैंने मुनव्वर साहब और भाई मलिकज़ादा जावेद से सरहद
पर रोज़ाना होने वाली  " रिट्रीट सेरेमनी "  देखने का निवेदन किया।  शाम को हम लोग भी
हुस्सैनीवाला सीमा चौकी पहुंचे और फिर वहाँ होने वाली दोनों मुल्कों के झंडे उतरने की
शानदार रस्म उन्होंने देखी,मुझे आज भी याद है सरहद के इस पर और उस पार का पूरा मजमा
बी.एस. ऍफ़ और पाकिस्तान रेंजर्स की ख़ूबसूरत परेड पर तालियां बजाता रहा और मुनव्वर
साहब ज़मीन पे खिंची उस सरहद नाम की आडी - तिरछी लक़ीर को पूरी सेरेमनी के दौरान
टक-टकी लगाकर देखते रहे। मुझे उस वक़्त अन्दाज़ा न था कि उनके मन में क्या चल रहा है।
जब परेड ख़त्म हुई तो मैंने उन्हें पाकिस्तान रेंजर्स के अफ़सरान और दूसरे ओहदेदारों से
मिलवाया, मुख़्तसर सी गुफ्तगू हुई और फिर रूखसती के वक़्त मुनव्वर साहब ने अपने मन
की सारी पीड़ा अपने एक शे'र के माध्यम से बयान कर दी :--

बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी, न मेरी आरज़ू लेकिन
ज़रा - सी ज़िद ने इस आँगन का बँटवारा कराया है

आसमान की तरह फैले हुए ख़ूबसूरत हिन्दुस्तान की तक़सीम जिनकी ज़रा - सी ज़िद के कारण
हुई हम भी समझ गये और सरहद नाम की लक़ीर के उस  पार खड़े पाकिस्तान रेंजर्स के अफ़सरान
भी

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हुस्सैनीवाला से आकर हम लोग मुशायरे में चले गये, मुशायरा देर तक चला और उसके बाद
हम लोग बी. एस .ऍफ़ की अधिकारी मेस में आ गये। सुबह मैं जब मुनव्वर साहब से मिलने 
उनके कमरे में गया तो मालूम हुआ कि वे रात भर सोये ही नहीं, हक़ीक़त ये थी कि सरहद 
देखने के बाद मुल्क के बंटवारे का मंज़र उनकी निगाहों के सामने आ गया और घर के 
आँगन में खिंची दीवार ने जो ज़ख्म दिये उन ज़ख्मों के तमाम टाँके उधड गये थे। मुनव्वर 
साहब पूरी रात उन उधडे हुए टांकों की तुरपाई में लगे रहे।
"मुहाजिरनामा" लिखने की इब्तिदा तो अप्रेल 2008 के उनके पाकिस्तान दौरे से ही हो चूकी
थी मगर फीरोज़पुर की सरहद पे बिताये कुछ लम्हे "मुहाजिरनामा" के सफ़्हों ( पृष्ठों ) में इज़ाफा
ज़रूर कर गए।
कराची में शहरे -क़ायद का मुशायरा था,वहीँ सिंध प्रांत के एक साहब जनाब साजिद रिज़वी ने
मुनव्वर साहब से दो दिन बाद होने वाले सिंध के मुशायरे में शिरकत करने को कहा,मुनव्वर
साहब ने अपने घुटनों की परेशानी के चलते उनसे अपनी असमर्थता ज़ाहिर कर दी परन्तु वे
हज़रत अपनी ज़िद पे अड़े रहे कि नहीं आपको चलना ही पडेगा और आख़िर में उन्होंने मुनव्वर
साहब को कहा कि यहाँ जो नज़राना आपको मिल रहा है हम आपको इस से दुगना दे देंगे,बस ये
बात मुनव्वर साहब को नागवार गुज़री और उन्होंने उसी वक़्त मुशायरे के स्टेज पे बैठे - बैठे ही
कुछ शे'र कह दिए। जब मुनव्वर साहब को मुशायरा पढने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने अपनी
ताज़ा कही ग़ज़ल के चंद शे'र रिज़वी साहिब की ख़िदमत में और पाकिस्तान में जिन्हें मुहाजिर
कहा जाता है उनकी जानिब से हुकूमते -पाकिस्तान की नज्र कर दिये और "मुहाजिरनामा" का
जन्म हो गया।

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए है
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं 

जब सैंतालिस में हिन्दुस्तान का बँटवारा हुआ उस वक़्त मुनव्वर साहब का जन्म तो नहीं हुआ
था मगर इस तक़सीम से इनके परिवार को दोहरा नुक्सान हुआ।हिन्दुस्तान के आँगन में जब
बंटवारे की दीवार खड़ी की गयी तो उसकी नींव में मुनव्वर साहब का ख़ानदान और उनकी
ज़मीने दोनों दब गए। इस किताब को पढ़ के ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसके एक -
एक शे'र को कहते वक़्त उनकी आँखों से आंसुओं के दरिया निकल गए होंगे।
"मुहाजिरनामा " मुनव्वर राना साहब के अज़ीज़ और सहारा परिवार के सदस्य श्री उपेन्द्र राय
के प्रयास से 2010 में दिव्यांश पब्लिकेशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई मगर हाल में इसका नया
 संस्करण वाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।
लुगत( शब्दकोष ) के हिसाब से मुहाजिर लफ़्ज़ के मआनी है जो हिजरत ( पलायन /माइग्रेशन )
करता है उसे मुहाजिर कहते है। मगर हमारे यहाँ सैंतालिस के बंटवारे में जो लोग अपना सब -
कुछ छोड़ के नए उजाले की तलाश में अपनी मिटटी की ख़ुशबू से जुदा हो गए थे सिर्फ उन्हें
मुहाजिर कहा जाता है। पाकिस्तान नाम की इमारत को बनाने में जिन्होंने अपना खून -पसीना
 तक गारे में मिला दिया वे पाकिस्तान की तामीर के 65 बरस बाद भी आज वहाँ सिर्फ़ मुहाजिर
ही कहलाते है सिर्फ़ मुहाजिर।
इंसान रोज़ी -रोटी की तलाश में अपनी ज़मीन से हिजरत (पलायन ) करता है,परिंदे अपने आबो-
दाने की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते है, एक लड़की अपने बाबुल की दहलीज़ से एक
अनजान घर में हमेशा - हमेशा के लिए चली जाती है ये सब भी तो हिजरत के ही मुख्तलिफ़ - 
मुख्तलिफ़ रूप है। हर हिजरत में एक गहरी टीस छिपी होती है,अपनी मिट्टी से अलग होने की 
इसी टीस, इसी पीड़ा, इसी दर्द को जब मुनव्वर राना ने आंसुओं की सियाही से काग़ज़ पे उतारा 
तो एक महा- काव्य का निर्माण हो गया और उसी महा -काव्य का नाम है "मुहाजिरनामा"।
डॉ. नसीमुज्ज़फ़र ने कभी कहा था कि  :--

तुम ने घर छोड़ा चलो तुम तो मुहाजिर हो गए
हम यहाँ हाज़िर रहे और ग़ैर -हाज़िर हो गए

"मुहाजिरनामा" पढने के बाद मुझे लगा कि अपने खेत, अपने घर, अपनी पगडंडियों, अपने वतन
को छोड़ने के बाद सीने पे "मुहाजिर" का तमगा लगने से लेकर अपने मुल्क में हाज़िर होकर भी
ग़ैर-हाज़िर होने तक के पूरे दर्दनाक सफ़र की दास्तान है "मुहाजिरनामा"।
किसी ग़ज़ल के पांच शे'र कहने में शाइर को कई बार लहू तक थूकना पड़ जाता है आप अंदाजा
लगाइए कि अपनी मिट्टी से बिछड़ने या ये कहूँ कि फूल से ख़ुशबू के जुदा होने जैसे मौज़ू पे पांच
सौ से ज़ियादा शे'र कहने वाले के दिल पे भला क्या गुज़री होगी शायद इसीलिए "मुहाजिरनामा"
लिखते वक़्त मुनव्वर राना को कई बार कलकत्ते और लखनऊ के अस्पतालों में भर्ती होना पडा।
"मुहाजिरनामा" को पढ़कर आज की नस्ल जिसे मुल्क के बंटवारे का ज़रा सा भी इल्म नहीं है,वो
उस पीड़ा और उस अज़ीयत (कष्ट ) को महसूस कर सकती है जिस पीड़ा और अज़ीयत से मुहाजिर
करार दे दिये गये बेबस लोग 65 बरसों से गुज़र रहें हैं।

नई नस्लें सुनेंगी तो यक़ीं उनको न आयेगा
कि हम कैसी ज़मीने और ज़माना छोड़ आये हैं

हिजरत के वक़्त क्या - क्या लोग यहाँ छोड़ गए उसके तसव्वुर भर से आँखें नम हो जाती है मगर
मुनव्वर राना ने जब इसे ग़ज़ल बनाया तो वाकई पलकों ने आंसुओं का बोझ उठाने से मना कर
दिया  :--

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं

अपने गाँव,अपनी मिटटी से हिजरत करने वाला चाहें कितना भी खुश हाल हो जाये मगर ये कसक
तो क़ब्र तक उसके दिल में रहती है :--

कहानी का ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है
कि हम मिटटी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

मुल्क जब तक़सीम हो रहा था उस वक़्त कुछ ऐसे लोग भी थे जो हिन्दुस्तान में अपना घर-बार
छोड़ कर जाना नहीं चाहते थे मगर उन्हें ख़ूबसूरत मुस्तक़बिल के ख़्वाब दिखाए गये उन्हें यही
बताया गया की नई रौशनी के तमाम इमकान सिर्फ़ वहीं है और वे न जाने कौनसी मजबूरी में
अपना वतन छोड़ के चले गये। अब तो उन्हें भी यही अहसास होने लगा है :----

ख़ुदा जाने ये हिजरत थी कि हिजरत का तमाशा था
उजाले की तमन्ना में उजाला छोड़ आए हैं

"मुहाजिरनामा" में एक तरफ़ अपने खेतों, अपनी माटी, अपनी तहज़ीब से जुदा होने का ग़म है
 तो दूसरी तरफ़ इसके शे'रों में पछतावे की तस्वीर प्रायश्चित के फ्रेम में लगी हुई नज़र आती है।
 "मुहाजिरनामा" के अशआर पढ़कर उस ग़म से रु -ब-रु हुआ जा सकता है जो आज भी हर 
मुहाजिर के सीने में गड़ा हुआ है :---

ये ख़ुदगरज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आए भतीजा छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो एक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आए
न जाने कितनी आँखों को छलकता छोड़ आए हैं

मुनव्वर राना साहब की पैदाइश गंगा -जमनी तहज़ीब से ओत -प्रोत शहर रायबरेली में हुई, इसी
ज़मीं पे उन्हें ऐसे संस्कार घुट्टी में पिलाए गये कि उन्हें कभी इस बात का अहसास ही न हुआ
 कि रहीम चाचा और सीताराम मामू अलग - अलग मज़हब के है। उन्हें ये मालूम ही नहीं था कि
दीवाली और होली सिर्फ़ हिन्दुओं के त्यौहार है न कि मुसलमानों के। ऐसी तहज़ीब से जब कोई
जुदा होकर जाता है तो उसका मन क्या - क्या कह सकता है मुनव्वर राना से ज़ियादा कौन जान
सकता है और इस जज़्बे को मुनव्वर राना से बेहतर कौन लिख सकता है। "मुहाजिरनामा " में
उनके ये शे'र गंगा -जमनी तहज़ीब से बिछुड़ने की टीस बयान करते हैं :-----

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए है
वो इक त्यौहार में घर की फसीलों पर दिये रखना
अब आँखें पूछती है क्यों उजाला छोड़ आए हैं 
वो जिनसे रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ तअल्लुक़ था
वो लक्ष्मी छोड़ आए है वो दुर्गा छोड़ आए है
सभी त्यौहार मिल - जुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए है दशहरा छोड़ आए है
हिफ़ाज़त के लिए मस्जिद को घेरे हों कई मंदिर
रवादारी का ये दिलकश नज़ारा छोड़ आए है
जन्म जिसने दिया हमको उसे तो साथ ले आए
मगर आते   हुए मैया यशोदा छोड़   आए हैं

मुनव्वर राना ने "मुहाजिरनामा" की तमहीद (भूमिका ) में जो तक़रीबन 25 -26 सफ़हे
( पन्ने ) लिखें है उन्हें पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि नस्र (गद्य ) को भी शाइरी की शक्ल में ढाला जा सकता है। उनका लिखा एक -एक वाक्य पढने वाले को ख़ुद ब ख़ुद एक ठहराव देता है और एक - 
एक पंक्ति को बार - बार पढ़ने का मन करता है। मुनव्वर साहब की नस्र में शाइरी की सी महक आती है। बेजान से लफ़्ज़ों को भी अपने अहसास की सियाही से मुनव्वर राना क़ीमती गुहर (मोती ) बना देते हैं। "मुहाजिरनामा" में उनकी लिखी तमहीद में से फीरोज़पुर सेक्टर की सरहद पे शाम को होने वाली रिट्रीट सेरेमनी को देख लिखी कुछ पंक्तियों से आपको रु- ब -रु करवाता हूँ, 
आप समझ जायेंगे कि मुनव्वर राना जितने उम्द्दा शे'र कहते हैं उतने ही उम्द्दा नस्र निगार भी हैं।
"सरहद के दोनों तरफ पेड़ों पर बैठी हज़ारहा चिड़ियाँ भी इस इंसानियत -सोज़ तमाशे को देखने के
 लिए कभी हिन्दुस्तानी दरख्तों पर उड़ कर चली जाती थीं, कभी पाकिस्तानी पेड़ों को अपनी
छतरी बना लेती थीं। चिड़ियाँ इधर से उधर उड़ कर दोनों तरफ की फ़ौजी सलाहियतों का मज़ाक
 उड़ा रही थीं। क्योंकि अख़बारों में तो रोज़ यह छपता है कि सरहद पर चौकसी इतनी बढ़ा दी
गयी है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता। "
मुनव्वर  राना की नस्र क़ारी (पाठक ) को मजबूर करती है की वो अपनी फ़िक्र की तेज़ रफ़्तार गाड़ी
को फिर से मोड़ कर लाये और ज़िंदगी के उन पहलुओं पे भी ग़ौर करें जिन्हें वक़्त से आगे निकलने
की चाह में वो पीछे छोड़ आया है।
"मुहाजिरनामा " में मुनव्वर साहब ने उन रोती हुई आँखों के आंसुओ को शाइरी बनाया है जो अपनी
आँखों के सामने किसी को जाते हुए देखती रही और देखते -देखते कोई अपना उन आँखों से ओझल
हो गया। जिसका प्यार - जिसकी मुहब्बत सब कुछ यहाँ छूट गया उसके पास वहाँ जाकर अगर कुछ
 बचा तो वो था पछतावा और जब इस पछतावे को मुनव्वर राना ने अपने अहसास के साथ मिलाया
तो ये ख़ूबसूरत अशआर हुए :--

बिछड़ते वक़्त की वो सिसकियाँ वो फूट कर रोना
कि जैसे मछलियों को हम सिसकता छोड़ आए है

हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे ख़ुद हमको
बने फिरते हैं यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा छोड़ आए हैं

बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना
सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं
बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं

कई होंटों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी
कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं

सुनहरे ख़्वाब की ताबीर अच्छी क्यूँ नहीं होती
जो आँखों में रहा करता था चेहरा छोड़ आए हैं
मुहब्बत की कहानी को मुकम्मल कर नहीं पाये
अधूरा था जो किस्सा वो अधूरा छोड़ आए हैं

इसी सिलसिले का एक और शे'र :--

वो ख़त जिसपर तेरे होंटों ने अपना नाम लिक्खा था
तेरे काढ़े हुए तकिये पे रक्खा छोड़ आये हैं

मुनव्वर राना की शाइरी की अपनी अलग ही रवायत है, तनक़ीद के बादशाहों की परवाह किये
बिना उन्होंने ऐसे -ऐसे मौज़ू अपनी शाइरी के लिए चुने है जिनके पास से गुज़रने से भी दूसरे
सुख़नवर घबराते हैं। मुनव्वर राना साहब के इसी मुख्तलिफ़ लहजे की वजह से शे'र सुनते ही
पूरे यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि इस पे मोहरे मुनव्वर लगी हुई है। दुनिया के सबसे
मुक़द्दस लफ्ज़ "माँ " का शाइरी में जब भी ज़िक्र आता है तो सबसे पहले ख़याल मुनव्वर राना
का आता है। मुनव्वर राना ने "माँ" के हवाले से शे'र उस वक़्त कहे जब लोग ग़ज़ल में "माँ "
लफ़्ज़ के इस्तेमाल को रिवायत के ख़िलाफ़ मानते थे। मुहाजिर नामा में भी मुनव्वर राना ने
एक माँ के दर्द को काग़ज़ पे उकेरा है :----

बसी थी जिसमें ख़ुशबू मेरी अम्मी की जवानी की
वो चादर छोड़ आयें है वो तकिया छोड़ आए हैं
महीनों तक तो अम्मी नींद में भी बड़बड़ाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आये हैं
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छूट गयी आख़िर
कि हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आये हैं

एक इंसान के इर्द -गिर्द जितने भी पहलू बिखरे होते हैं उन्हें मोती बनाकर अपनी ग़ज़ल की माला
में पिरो देने का हुनर मुनव्वर राना से सीखा जा सकता है। मुहाजिर नामा में उनके कुछ अशआर
मुलाहिज़ा हो और इन्हें सुनकर आप ख़ुद मेरी इस बात की तस्दीक करें कि ग़ज़ल के ख़ूबसूरत
लिबास बनाने के लिए मुनव्वर साहब रेशमी कपडे कहाँ - कहाँ से लाते हैं :--

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आये हैं
किसी नुक्सान की भरपाई तो अब हो नहीं सकती
तो फिर क्या सोचना क्या लाए कितना छोड़ आये हैं
रेआया थे तो फिर हाकिम का कहना क्यों नहीं माना
अगर हम शाह थे तो क्यों रेआया छोड़ आये हैं
( रेआया - प्रजा )
किसी बात को सलीक़े से कहने का फ़न ही शाइरी का दूसरा नाम है, मुनव्वर राना की शाइरी में
ज़ुबान का इस्तेमाल और लफ़्ज़ों को बरतने का ये सलीक़ा साफ़ नज़र आता है। ये शे'र ख़ूबसूरत
ज़ुबान और लखनवी अंदाज़ की एक उम्द्दा मिसाल हैं :---

भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वहीं, झूले में हम जिसको हुमकता छोड़ आये हैं 

जिस वक़्त बँटवारा हुआ उस समय लोगों पे किस तरह का चौतरफ़ा कहर बरपा था
,"मुहाजिरनामा" पढ़ कर उस वक़्त की तस्वीर साफ़ -साफ़ देखी जा सकती है। लोग सोने से
भी महंगे दाम की अपनी ज़मीने मजबूरी में महाजन को कौड़ियों के दाम बेच के चले गए।
मुनव्वर साहब ने इस दर्द को सिर्फ महसूस ही नहीं किया बल्कि वे इस दर्द को अपनी रूह पे
एक ज़ख्म की सूरत 60 सालों से मुसलसल झेलते आ रहें है :--

बहुत कम दाम में बनिए ने खेतों को ख़रीदा था
हम इसके बावज़ूद उस पर  बकाया छोड़ आए हैं

"मुहाजिरनामा" में पांच सौ से भी ज़ियादा शे'र है, किसी एक ही बहर,एक ही रदीफ़ काफ़िये
से सजी इस तरह की शाइरी की ऐसी बेमिसाल किताब मैंने इस से पहले नहीं देखी। नई -
पीढ़ी को ये किताब ज़रूर पढनी चाहिए ताकि उन्हें ये पता चले कि विभाजन जैसी त्रासदी
कितनी दुःखदाई होती है। मेरा ये भी दावा है कि "मुहाजिरनामा " का एक - एक शे'र और
मुनव्वर साहब की लिखी तमहीद पढ़ने के बाद नई नस्ल को तक़सीम लफ़्ज़ तक से नफ़रत
हो जायेगी।
मुनव्वर राना ने "मुहाजिरनामा" में बंटवारे के वक़्त हिन्दुस्तान के कोने - कोने से पाकिस्तान
चले गये लोगों के तमाम ग़मों को एक ही ग़ज़ल में समेट के रख दिया है। चाहें वो जुम्मन
मियाँ  के राम-लीला में राम का किरदार वहाँ जा कर न कर पाने का दुःख हो, चाहें वुजू के
लिए गंगा- जमुना के पानी से महरूम होने का ग़म हो,चाहें मुरादाबाद के हुक्क़े की गुड़ -गुड़ाहट
की लज्जत की याद हो ,चाहें कादिर के गाजर वाले हलवे जैसे  स्वाद का वहाँ ना मिलना   हो,
चाहें सुलाकी लाल की लस्सी के जलवों की  तड़प  हो,चाहें लखनऊ के सलीक़े से दामन छूट जाने
की कसक हो,चाहें बनारस के पान से लबो की हो गयी दूरियां हों या फिर नानक, चिश्ती,ग़ालिब 
और तुलसी की ज़मीन से अलग होने का दर्द हो ..:--------

ज़मीने -नानक-ओ-चिश्ती,ज़बाने -ग़ालिब-ओ-तुलसी
ये सब कुछ पास था अपने ये सारा छोड़ आये हैं

"मुहाजिरनामा" में मुनव्वर राना हर मिसरे में ये सन्देश देते नज़र आते हैं कि एक आँगन के जब
दो आँगन हो जाते हैं तो घर की दीवारें तक कराह उठती है। जहां बचपन और जवानी गुज़री हो
उस माटी से जुदा होना कोई खेल नहीं है। हिन्दुस्तान के इतिहास की सबसे बड़ी अगर कोई
त्रासदी है तो वो है मुल्क का बँटवारा। बंटवारे के बाद सरमायेदार और ज़मींदार से मुहाजिर हो
गए लोगों के अन्दर की दबी और सहमी आवाज़ का नाम है "मुहाजिरनामा"। "मुहाजिरनामा" के
और भी बहुत से शे'र मैं आप के मुख़ातिब रखना चाहता था मगर आप "मुहाजिरनामा" पढ़ें तो
आप एक अजीब सी  पीड़ा से ख़ुद रु- ब -रु होंगे। जिसने विभाजन का ज़िक्र सिर्फ किताबों और
किस्सों में सुना है उनके लिए ये किताब एक अनमोल तोहफ़ा है। "मुहाजिरनामा " एक किताब
नहीं बल्कि एक धरोहर के रूप में सहेज के रखे जाने वाला ग्रन्थ है।
परवरदिगार से यही दुआ करता हूँ कि मुस्तक़बिल ( भविष्य ) में हमें कोई और बँटवारा न देखना
 पड़े और आख़िर में "मुहाजिरनामा" के इन्ही मिसरों के साथ इजाज़त चाहता हूँ
 ......ख़ुदा हाफ़िज़

अगर लिखने पे आ जाएँ सियाही ख़त्म हो जाए
कि तेरे पास आये हैं तो क्या -क्या छोड़ आये हैं
........


प्रेषिका
गीता पंडित


विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
सीमा सुरक्षा बल परिसर,
बीकानेर
9414094122



Sunday, July 29, 2012

जब तक बढ़े न पाँव... एक गीत ,,,,, -मुकुट बिहारी सरोज

...
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जब तक कसी न कमर,तभी तक कठि‍नाई है
वरना,काम कौनसा है, जो कि‍या न जाए

जि‍सने चाहा पी डाले सागर के सागर
जि‍सने चाहा घर बुलवाये चाँद-सि‍तारे
कहने वाले तो कहते हैं बात यहाँ तक
मौत मर गई थी जीवन के डर के मारे

जब तक खुले न पलक,तभी तक कजराई है
वराना, तम की क्‍या बि‍सात,जो पि‍या न जाए

तुम चाहो सब हो जाये बैठे ही बैठे
सो तो सम्‍भव नहीं भले कुछ शर्त लगा दो
बि‍ना बहे पाई हो जि‍सने पार आज तक
एक आदभी भी कोई ऐसा बता दो

जब तक खुले न पाल,तभी तक गहराई है
वरना,वे मौसम क्‍या,जि‍नमें जि‍या न जाए

यह माना तुम एक अकेले,शूल हजारों
घटती नज़र नहीं आती मंजि‍ल की दूरी
ले‍कि‍न पस्‍त करो मत अपने स्‍वस्‍थ हौसले
समय भेजता ही होगा जय की मंजूरी

जब तक बढ़े न पाँव,तभी तक ऊँचाई है
वराना,शि‍खर कौन सा है,जो छि‍या न जाए





प्रेषिका 


गीता पंडित 

Tuesday, November 1, 2011

सब लोग जानते हैं संगीत गा रहा हूँ... तुकाराम वर्मा


....
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बहते हुए पवन के ,विपरीत जा रहा हूँ | 
सब लोग जानते हैं, संगीत गा रहा हूँ || 


अनुभव मुझे हुआ है, हर वस्तु की कमी का| 
कारण समझ चुका हूँ, संतप्त आदमी का|| 
जलती हुई अवनि पर,सुख-शांति ला रहा हूँ| 


विध्वंस की कथा का, सारांश जानता हूँ | 
सब कुछ सही न मित्रों, अधिकांश जानता हूँ|| 
आज़ाद राष्ट्र में भी, भयभीत -सा रहा हूँ | 


धनशक्ति की प्रगति के,सारे पते-ठिकाने | 
सबको विदित हुए हैं, सम्बन्ध नव-पुराने || 
खुलकर दुखी जनों से, नित प्यार पा रहा हूँ| 


कल के लिए जरूरी, आधार धर रहा हूँ | 
सम्पूर्ण व्याधियों का, उपचार कर रहा हूँ|| 
पोषक प्रवल समर्थक, सद्नीति का रहा हूँ | 
सब लोग जानते हैं, संगीत गा रहा हूँ || 






प्रेषिका
गीता पंडित 

Wednesday, October 26, 2011

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ... हरिवंश राय बच्चन .

...
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है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,

रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,

आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,

स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,

किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ  ||

सभार ( कविता कोष )

प्रेषिका 
गीता पंडित 
शुभ - दीपावली 

Thursday, October 20, 2011

जलाओ दिए पर.... गोपालदास नीरज .

....
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जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।