tag:blogger.com,1999:blog-10439374179580725932023-11-16T09:33:11.229-08:00Meri pasand (मेरी पसंद )गीता पंडितhttp://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-1043937417958072593.post-79813419328458117482014-02-27T05:00:00.000-08:002014-02-27T05:00:21.656-08:00."मुहाजिरनामा " .मुनव्वर राणा की पुस्तक समीक्षा ..... विजेंद्र शर्मा द्वारा .<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="post-header" style="font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 1.5em;">
<div class="post-header-line-1">
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</div>
<div class="post-body entry-content" id="post-body-1001125708333114549" style="font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 1.4; position: relative; width: 2081px;">
<strong>समीक्षा</strong><br />
<strong>अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा "</strong><br />
<strong>समीक्षक - विजेंद्र शर्मा</strong><br />
<strong><br />
</strong> <img alt="image" border="0" src="http://lh3.ggpht.com/-F_zkKPvBz5w/UDnDqWk0ZXI/AAAAAAAANxY/15hBZh-e5HQ/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800" height="452" style="-webkit-box-shadow: rgba(0, 0, 0, 0.0976563) 1px 1px 5px; background-color: white; background-image: none; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border: 0px; box-shadow: rgba(0, 0, 0, 0.0976563) 1px 1px 5px; display: inline; margin: 0px; padding: 0px 0px 5px;" title="image" width="333" /><br />
<br />
30 नवम्बर, 2008 की बात है, अज़ीज़ दोस्त गौरव भास्कर के वालिद मरहूम श्री मोहनलाल<br />
भास्कर की याद में होने वाले मुशायरे में शिरकत करने मुनव्वर राना साहब फीरोज़पुर आये<br />
हुए थे उन दिनों मेरी पोस्टिंग भी वहीं थी। मेरी ख़ुशनसीबी का मिज़ाज भी उस वक़्त सातवें<br />
आसमान पर होना वाजिब था, क्योंकि मुझे मुनव्वर साहब की मेजबानी का मौक़ा फ़राहम<br />
हुआ था। मुशायरा रात को था सो मैंने मुनव्वर साहब और भाई मलिकज़ादा जावेद से सरहद<br />
पर रोज़ाना होने वाली " रिट्रीट सेरेमनी " देखने का निवेदन किया। शाम को हम लोग भी<br />
हुस्सैनीवाला सीमा चौकी पहुंचे और फिर वहाँ होने वाली दोनों मुल्कों के झंडे उतरने की<br />
शानदार रस्म उन्होंने देखी,मुझे आज भी याद है सरहद के इस पर और उस पार का पूरा मजमा<br />
बी.एस. ऍफ़ और पाकिस्तान रेंजर्स की ख़ूबसूरत परेड पर तालियां बजाता रहा और मुनव्वर<br />
साहब ज़मीन पे खिंची उस सरहद नाम की आडी - तिरछी लक़ीर को पूरी सेरेमनी के दौरान<br />
टक-टकी लगाकर देखते रहे। मुझे उस वक़्त अन्दाज़ा न था कि उनके मन में क्या चल रहा है।<br />
जब परेड ख़त्म हुई तो मैंने उन्हें पाकिस्तान रेंजर्स के अफ़सरान और दूसरे ओहदेदारों से<br />
मिलवाया, मुख़्तसर सी गुफ्तगू हुई और फिर रूखसती के वक़्त मुनव्वर साहब ने अपने मन<br />
की सारी पीड़ा अपने एक शे'र के माध्यम से बयान कर दी :--<br />
<br />
<strong>बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी, न मेरी आरज़ू लेकिन</strong><br />
<strong>ज़रा - सी ज़िद ने इस आँगन का बँटवारा कराया है</strong><br />
<strong><br />
</strong> आसमान की तरह फैले हुए ख़ूबसूरत हिन्दुस्तान की तक़सीम जिनकी ज़रा - सी ज़िद के कारण<br />
हुई हम भी समझ गये और सरहद नाम की लक़ीर के उस पार खड़े पाकिस्तान रेंजर्स के अफ़सरान<br />
भी<a href="http://www.rachanakar.org/" style="color: #757575; text-decoration: none;">।</a><br />
<br />
<img alt="image" border="0" src="http://lh5.ggpht.com/-68kLDbXBWa4/UDnDuCN_ecI/AAAAAAAANxg/ytGAW024P_s/image%25255B5%25255D.png?imgmax=800" height="320" style="-webkit-box-shadow: rgba(0, 0, 0, 0.0976563) 1px 1px 5px; background-color: white; background-image: none; background-position: initial initial; background-repeat: initial initial; border: 0px; box-shadow: rgba(0, 0, 0, 0.0976563) 1px 1px 5px; display: inline; margin: 0px; padding: 0px 0px 5px;" title="image" width="428" /><br />
<br />
हुस्सैनीवाला से आकर हम लोग मुशायरे में चले गये, मुशायरा देर तक चला और उसके बाद<br />
<span style="line-height: 1.4;">हम लोग बी. एस .ऍफ़ की अधिकारी मेस में आ गये। सुबह मैं जब मुनव्वर साहब से मिलने </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">उनके कमरे में गया तो मालूम हुआ कि वे रात भर सोये ही नहीं, हक़ीक़त ये थी कि सरहद </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">देखने के बाद मुल्क के बंटवारे का मंज़र उनकी निगाहों के सामने आ गया और घर के </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">आँगन में खिंची दीवार ने जो ज़ख्म दिये उन ज़ख्मों के तमाम टाँके उधड गये थे। मुनव्वर </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">साहब पूरी रात उन उधडे हुए टांकों की तुरपाई में लगे रहे।</span><br />
"मुहाजिरनामा" लिखने की इब्तिदा तो अप्रेल 2008 के उनके पाकिस्तान दौरे से ही हो चूकी<br />
थी मगर फीरोज़पुर की सरहद पे बिताये कुछ लम्हे "मुहाजिरनामा" के सफ़्हों ( पृष्ठों ) में इज़ाफा<br />
<span style="line-height: 1.4;">ज़रूर कर गए।</span><br />
कराची में शहरे -क़ायद का मुशायरा था,वहीँ सिंध प्रांत के एक साहब जनाब साजिद रिज़वी ने<br />
मुनव्वर साहब से दो दिन बाद होने वाले सिंध के मुशायरे में शिरकत करने को कहा,मुनव्वर<br />
साहब ने अपने घुटनों की परेशानी के चलते उनसे अपनी असमर्थता ज़ाहिर कर दी परन्तु वे<br />
हज़रत अपनी ज़िद पे अड़े रहे कि नहीं आपको चलना ही पडेगा और आख़िर में उन्होंने मुनव्वर<br />
साहब को कहा कि यहाँ जो नज़राना आपको मिल रहा है हम आपको इस से दुगना दे देंगे,बस ये<br />
बात मुनव्वर साहब को नागवार गुज़री और उन्होंने उसी वक़्त मुशायरे के स्टेज पे बैठे - बैठे ही<br />
कुछ शे'र कह दिए। जब मुनव्वर साहब को मुशायरा पढने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने अपनी<br />
ताज़ा कही ग़ज़ल के चंद शे'र रिज़वी साहिब की ख़िदमत में और पाकिस्तान में जिन्हें मुहाजिर<br />
कहा जाता है उनकी जानिब से हुकूमते -पाकिस्तान की नज्र कर दिये और "मुहाजिरनामा" का<br />
जन्म हो गया।<br />
<br />
<strong>मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए है</strong><br />
<strong>तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं </strong><br />
<strong><br />
</strong> जब सैंतालिस में हिन्दुस्तान का बँटवारा हुआ उस वक़्त मुनव्वर साहब का जन्म तो नहीं हुआ<br />
था मगर इस तक़सीम से इनके परिवार को दोहरा नुक्सान हुआ।हिन्दुस्तान के आँगन में जब<br />
बंटवारे की दीवार खड़ी की गयी तो उसकी नींव में मुनव्वर साहब का ख़ानदान और उनकी<br />
ज़मीने दोनों दब गए। इस किताब को पढ़ के ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसके एक -<br />
एक शे'र को कहते वक़्त उनकी आँखों से आंसुओं के दरिया निकल गए होंगे।<br />
"मुहाजिरनामा " मुनव्वर राना साहब के अज़ीज़ और सहारा परिवार के सदस्य श्री उपेन्द्र राय<br />
के प्रयास से 2010 में दिव्यांश पब्लिकेशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई मगर हाल में इसका नया<br />
<span style="line-height: 1.4;"> संस्करण वाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।</span><br />
लुगत( शब्दकोष ) के हिसाब से मुहाजिर लफ़्ज़ के मआनी है जो हिजरत ( पलायन /माइग्रेशन )<br />
करता है उसे मुहाजिर कहते है। मगर हमारे यहाँ सैंतालिस के बंटवारे में जो लोग अपना सब -<br />
कुछ छोड़ के नए उजाले की तलाश में अपनी मिटटी की ख़ुशबू से जुदा हो गए थे सिर्फ उन्हें<br />
मुहाजिर कहा जाता है। पाकिस्तान नाम की इमारत को बनाने में जिन्होंने अपना खून -पसीना<br />
तक गारे में मिला दिया वे पाकिस्तान की तामीर के 65 बरस बाद भी आज वहाँ सिर्फ़ मुहाजिर<br />
ही कहलाते है सिर्फ़ मुहाजिर।<br />
इंसान रोज़ी -रोटी की तलाश में अपनी ज़मीन से हिजरत (पलायन ) करता है,परिंदे अपने आबो-<br />
दाने की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते है, एक लड़की अपने बाबुल की दहलीज़ से एक<br />
<span style="line-height: 1.4;">अनजान घर में हमेशा - हमेशा के लिए चली जाती है ये सब भी तो हिजरत के ही मुख्तलिफ़ - </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">मुख्तलिफ़ रूप है। हर हिजरत में एक गहरी टीस छिपी होती है,अपनी मिट्टी से अलग होने की </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">इसी टीस, इसी पीड़ा, इसी दर्द को जब मुनव्वर राना ने आंसुओं की सियाही से काग़ज़ पे उतारा </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">तो एक महा- काव्य का निर्माण हो गया और उसी महा -काव्य का नाम है "मुहाजिरनामा"।</span><br />
डॉ. नसीमुज्ज़फ़र ने कभी कहा था कि :--<br />
<br />
<strong>तुम ने घर छोड़ा चलो तुम तो मुहाजिर हो गए</strong><br />
<strong>हम यहाँ हाज़िर रहे और ग़ैर -हाज़िर हो गए</strong><br />
<strong><br />
</strong> "मुहाजिरनामा" पढने के बाद मुझे लगा कि अपने खेत, अपने घर, अपनी पगडंडियों, अपने वतन<br />
को छोड़ने के बाद सीने पे "मुहाजिर" का तमगा लगने से लेकर अपने मुल्क में हाज़िर होकर भी<br />
ग़ैर-हाज़िर होने तक के पूरे दर्दनाक सफ़र की दास्तान है "मुहाजिरनामा"।<br />
किसी ग़ज़ल के पांच शे'र कहने में शाइर को कई बार लहू तक थूकना पड़ जाता है आप अंदाजा<br />
लगाइए कि अपनी मिट्टी से बिछड़ने या ये कहूँ कि फूल से ख़ुशबू के जुदा होने जैसे मौज़ू पे पांच<br />
सौ से ज़ियादा शे'र कहने वाले के दिल पे भला क्या गुज़री होगी शायद इसीलिए "मुहाजिरनामा"<br />
लिखते वक़्त मुनव्वर राना को कई बार कलकत्ते और लखनऊ के अस्पतालों में भर्ती होना पडा।<br />
"मुहाजिरनामा" को पढ़कर आज की नस्ल जिसे मुल्क के बंटवारे का ज़रा सा भी इल्म नहीं है,वो<br />
उस पीड़ा और उस अज़ीयत (कष्ट ) को महसूस कर सकती है जिस पीड़ा और अज़ीयत से मुहाजिर<br />
करार दे दिये गये बेबस लोग 65 बरसों से गुज़र रहें हैं।<br />
<br />
<strong>नई नस्लें सुनेंगी तो यक़ीं उनको न आयेगा</strong><br />
<strong>कि हम कैसी ज़मीने और ज़माना छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> हिजरत के वक़्त क्या - क्या लोग यहाँ छोड़ गए उसके तसव्वुर भर से आँखें नम हो जाती है मगर<br />
मुनव्वर राना ने जब इसे ग़ज़ल बनाया तो वाकई पलकों ने आंसुओं का बोझ उठाने से मना कर<br />
दिया :--<br />
<br />
<strong>कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं</strong><br />
<strong>कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> अपने गाँव,अपनी मिटटी से हिजरत करने वाला चाहें कितना भी खुश हाल हो जाये मगर ये कसक<br />
तो क़ब्र तक उसके दिल में रहती है :--<br />
<br />
<strong>कहानी का ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है</strong><br />
<strong>कि हम मिटटी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> मुल्क जब तक़सीम हो रहा था उस वक़्त कुछ ऐसे लोग भी थे जो हिन्दुस्तान में अपना घर-बार<br />
छोड़ कर जाना नहीं चाहते थे मगर उन्हें ख़ूबसूरत मुस्तक़बिल के ख़्वाब दिखाए गये उन्हें यही<br />
बताया गया की नई रौशनी के तमाम इमकान सिर्फ़ वहीं है और वे न जाने कौनसी मजबूरी में<br />
अपना वतन छोड़ के चले गये। अब तो उन्हें भी यही अहसास होने लगा है :----<br />
<br />
<strong>ख़ुदा जाने ये हिजरत थी कि हिजरत का तमाशा था</strong><br />
<strong>उजाले की तमन्ना में उजाला छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> "मुहाजिरनामा" में एक तरफ़ अपने खेतों, अपनी माटी, अपनी तहज़ीब से जुदा होने का ग़म है<br />
तो <span style="line-height: 1.4;">दूसरी तरफ़ इसके शे'रों में पछतावे की तस्वीर प्रायश्चित के फ्रेम में लगी हुई नज़र आती है।</span><br />
<span style="line-height: 1.4;"> "मुहाजिरनामा" के अशआर पढ़कर उस ग़म से रु -ब-रु हुआ जा सकता है जो आज भी हर </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">मुहाजिर के सीने में गड़ा हुआ है :---</span><br />
<br />
<strong>ये ख़ुदगरज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है</strong><br />
<strong>कि हम बेटे तो ले आए भतीजा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong>अक़ीदत से कलाई पर जो एक बच्ची ने बाँधी थी</strong><br />
<strong>वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong>न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आए</strong><br />
<strong>न जाने कितनी आँखों को छलकता छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> मुनव्वर राना साहब की पैदाइश गंगा -जमनी तहज़ीब से ओत -प्रोत शहर रायबरेली में हुई, इसी<br />
ज़मीं पे उन्हें ऐसे संस्कार घुट्टी में पिलाए गये कि उन्हें कभी इस बात का अहसास ही न हुआ<br />
कि रहीम चाचा और सीताराम मामू अलग - अलग मज़हब के है। उन्हें ये मालूम ही नहीं था कि<br />
दीवाली और होली सिर्फ़ हिन्दुओं के त्यौहार है न कि मुसलमानों के। ऐसी तहज़ीब से जब कोई<br />
जुदा होकर जाता है तो उसका मन क्या - क्या कह सकता है मुनव्वर राना से ज़ियादा कौन जान<br />
सकता है और इस जज़्बे को मुनव्वर राना से बेहतर कौन लिख सकता है। "मुहाजिरनामा " में<br />
उनके ये शे'र गंगा -जमनी तहज़ीब से बिछुड़ने की टीस बयान करते हैं :-----<br />
<br />
<strong>गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब</strong><br />
<strong>इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए है</strong><br />
<strong>वो इक त्यौहार में घर की फसीलों पर दिये रखना</strong><br />
<strong>अब आँखें पूछती है क्यों उजाला छोड़ आए हैं </strong><br />
<strong>वो जिनसे रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ तअल्लुक़ था</strong><br />
<strong>वो लक्ष्मी छोड़ आए है वो दुर्गा छोड़ आए है</strong><br />
<strong>सभी त्यौहार मिल - जुल कर मनाते थे वहाँ जब थे</strong><br />
<strong>दिवाली छोड़ आए है दशहरा छोड़ आए है</strong><br />
<strong>हिफ़ाज़त के लिए मस्जिद को घेरे हों कई मंदिर</strong><br />
<strong>रवादारी का ये दिलकश नज़ारा छोड़ आए है</strong><br />
<strong>जन्म जिसने दिया हमको उसे तो साथ ले आए</strong><br />
<strong>मगर आते हुए मैया यशोदा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> मुनव्वर राना ने "मुहाजिरनामा" की तमहीद (भूमिका ) में जो तक़रीबन 25 -26 सफ़हे<br />
( पन्ने ) <span style="line-height: 1.4;">लिखें है उन्हें पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि नस्र (गद्य ) को भी शाइरी की शक्ल </span><span style="line-height: 1.4;">में ढाला जा </span><span style="line-height: 1.4;">सकता है। उनका लिखा एक -एक वाक्य पढने वाले को ख़ुद ब ख़ुद एक ठहराव देता है और एक - </span><br />
एक पंक्ति को बार - बार पढ़ने का मन करता है। मुनव्वर साहब की नस्र में शाइरी की सी महक <span style="line-height: 1.4;">आती है। बेजान से लफ़्ज़ों को भी अपने अहसास की सियाही से मुनव्वर राना क़ीमती गुहर</span><span style="line-height: 1.4;"> (मोती ) बना देते हैं। "मुहाजिरनामा" में उनकी लिखी तमहीद में से फीरोज़पुर सेक्टर की सरहद </span><span style="line-height: 1.4;">पे शाम को होने वाली रिट्रीट सेरेमनी को देख लिखी कुछ पंक्तियों से आपको रु- ब -रु करवाता हूँ, </span><br />
आप समझ जायेंगे कि मुनव्वर राना जितने उम्द्दा शे'र कहते हैं उतने ही उम्द्दा नस्र निगार भी हैं।<br />
"सरहद के दोनों तरफ पेड़ों पर बैठी हज़ारहा चिड़ियाँ भी इस इंसानियत -सोज़ तमाशे को देखने के<br />
लिए कभी हिन्दुस्तानी दरख्तों पर उड़ कर चली जाती थीं, कभी पाकिस्तानी पेड़ों को अपनी<br />
छतरी बना लेती थीं। चिड़ियाँ इधर से उधर उड़ कर दोनों तरफ की फ़ौजी सलाहियतों का मज़ाक<br />
उड़ा रही थीं। क्योंकि अख़बारों में तो रोज़ यह छपता है कि सरहद पर चौकसी इतनी बढ़ा दी<br />
गयी है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता। "<br />
मुनव्वर राना की नस्र क़ारी (पाठक ) को मजबूर करती है की वो अपनी फ़िक्र की तेज़ रफ़्तार गाड़ी<br />
को फिर से मोड़ कर लाये और ज़िंदगी के उन पहलुओं पे भी ग़ौर करें जिन्हें वक़्त से आगे निकलने<br />
की चाह में वो पीछे छोड़ आया है।<br />
"मुहाजिरनामा " में मुनव्वर साहब ने उन रोती हुई आँखों के आंसुओ को शाइरी बनाया है जो अपनी<br />
आँखों के सामने किसी को जाते हुए देखती रही और देखते -देखते कोई अपना उन आँखों से ओझल<br />
हो गया। जिसका प्यार - जिसकी मुहब्बत सब कुछ यहाँ छूट गया उसके पास वहाँ जाकर अगर कुछ<br />
बचा तो वो था पछतावा और जब इस पछतावे को मुनव्वर राना ने अपने अहसास के साथ मिलाया<br />
तो ये ख़ूबसूरत अशआर हुए :--<br />
<br />
<strong>बिछड़ते वक़्त की वो सिसकियाँ वो फूट कर रोना</strong><br />
<strong>कि जैसे मछलियों को हम सिसकता छोड़ आए है</strong><br />
<strong></strong><br />
<strong>हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे ख़ुद हमको</strong><br />
<strong>बने फिरते हैं यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong></strong><br />
<strong>बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना</strong><br />
<strong>सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong>बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल</strong><br />
<strong>किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong></strong><br />
<strong>कई होंटों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी</strong><br />
<strong>कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong></strong><br />
<strong>सुनहरे ख़्वाब की ताबीर अच्छी क्यूँ नहीं होती</strong><br />
<strong>जो आँखों में रहा करता था चेहरा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong>मुहब्बत की कहानी को मुकम्मल कर नहीं पाये</strong><br />
<strong>अधूरा था जो किस्सा वो अधूरा छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> इसी सिलसिले का एक और शे'र :--<br />
<br />
<strong>वो ख़त जिसपर तेरे होंटों ने अपना नाम लिक्खा था</strong><br />
<strong>तेरे काढ़े हुए तकिये पे रक्खा छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> मुनव्वर राना की शाइरी की अपनी अलग ही रवायत है, तनक़ीद के बादशाहों की परवाह किये<br />
बिना उन्होंने ऐसे -ऐसे मौज़ू अपनी शाइरी के लिए चुने है जिनके पास से गुज़रने से भी दूसरे<br />
सुख़नवर घबराते हैं। मुनव्वर राना साहब के इसी मुख्तलिफ़ लहजे की वजह से शे'र सुनते ही<br />
पूरे यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि इस पे मोहरे मुनव्वर लगी हुई है। दुनिया के सबसे<br />
मुक़द्दस लफ्ज़ "माँ " का शाइरी में जब भी ज़िक्र आता है तो सबसे पहले ख़याल मुनव्वर राना<br />
का आता है। मुनव्वर राना ने "माँ" के हवाले से शे'र उस वक़्त कहे जब लोग ग़ज़ल में "माँ "<br />
लफ़्ज़ के इस्तेमाल को रिवायत के ख़िलाफ़ मानते थे। मुहाजिर नामा में भी मुनव्वर राना ने<br />
एक माँ के दर्द को काग़ज़ पे उकेरा है :----<br />
<br />
<strong>बसी थी जिसमें ख़ुशबू मेरी अम्मी की जवानी की</strong><br />
<strong>वो चादर छोड़ आयें है वो तकिया छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong>महीनों तक तो अम्मी नींद में भी बड़बड़ाती थीं</strong><br />
<strong>सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong>हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छूट गयी आख़िर</strong><br />
<strong>कि हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> एक इंसान के इर्द -गिर्द जितने भी पहलू बिखरे होते हैं उन्हें मोती बनाकर अपनी ग़ज़ल की माला<br />
में पिरो देने का हुनर मुनव्वर राना से सीखा जा सकता है। मुहाजिर नामा में उनके कुछ अशआर<br />
मुलाहिज़ा हो और इन्हें सुनकर आप ख़ुद मेरी इस बात की तस्दीक करें कि ग़ज़ल के ख़ूबसूरत<br />
लिबास बनाने के लिए मुनव्वर साहब रेशमी कपडे कहाँ - कहाँ से लाते हैं :--<br />
<br />
<strong>शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी</strong><br />
<strong>कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong>किसी नुक्सान की भरपाई तो अब हो नहीं सकती</strong><br />
<strong>तो फिर क्या सोचना क्या लाए कितना छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong>रेआया थे तो फिर हाकिम का कहना क्यों नहीं माना</strong><br />
<strong>अगर हम शाह थे तो क्यों रेआया छोड़ आये हैं</strong><br />
( रेआया - प्रजा )<br />
किसी बात को सलीक़े से कहने का फ़न ही शाइरी का दूसरा नाम है, मुनव्वर राना की शाइरी में<br />
ज़ुबान का इस्तेमाल और लफ़्ज़ों को बरतने का ये सलीक़ा साफ़ नज़र आता है। ये शे'र ख़ूबसूरत<br />
ज़ुबान और लखनवी अंदाज़ की एक उम्द्दा मिसाल हैं :---<br />
<br />
<strong>भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी</strong><br />
<strong>वहीं, झूले में हम जिसको हुमकता छोड़ आये हैं </strong><br />
<strong><br />
</strong> जिस वक़्त बँटवारा हुआ उस समय लोगों पे किस तरह का चौतरफ़ा कहर बरपा था<br />
,"मुहाजिरनामा" पढ़ कर उस वक़्त की तस्वीर साफ़ -साफ़ देखी जा सकती है। लोग सोने से<br />
भी महंगे दाम की अपनी ज़मीने मजबूरी में महाजन को कौड़ियों के दाम बेच के चले गए।<br />
मुनव्वर साहब ने इस दर्द को सिर्फ महसूस ही नहीं किया बल्कि वे इस दर्द को अपनी रूह पे<br />
एक ज़ख्म की सूरत 60 सालों से मुसलसल झेलते आ रहें है :--<br />
<br />
<strong>बहुत कम दाम में बनिए ने खेतों को ख़रीदा था</strong><br />
<strong>हम इसके बावज़ूद उस पर बकाया छोड़ आए हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> "मुहाजिरनामा" में पांच सौ से भी ज़ियादा शे'र है, किसी एक ही बहर,एक ही रदीफ़ काफ़िये<br />
से सजी इस तरह की शाइरी की ऐसी बेमिसाल किताब मैंने इस से पहले नहीं देखी। नई -<br />
पीढ़ी को ये किताब ज़रूर पढनी चाहिए ताकि उन्हें ये पता चले कि विभाजन जैसी त्रासदी<br />
कितनी दुःखदाई होती है। मेरा ये भी दावा है कि "मुहाजिरनामा " का एक - एक शे'र और<br />
मुनव्वर साहब की लिखी तमहीद पढ़ने के बाद नई नस्ल को तक़सीम लफ़्ज़ तक से नफ़रत<br />
हो जायेगी।<br />
मुनव्वर राना ने "मुहाजिरनामा" में बंटवारे के वक़्त हिन्दुस्तान के कोने - कोने से पाकिस्तान<br />
चले गये लोगों के तमाम ग़मों को एक ही ग़ज़ल में समेट के रख दिया है। चाहें वो जुम्मन<br />
मियाँ के राम-लीला में राम का किरदार वहाँ जा कर न कर पाने का दुःख हो, चाहें वुजू के<br />
लिए गंगा- जमुना के पानी से महरूम होने का ग़म हो,चाहें मुरादाबाद के हुक्क़े की गुड़ -गुड़ाहट<br />
की लज्जत की याद हो ,चाहें कादिर के गाजर वाले हलवे जैसे स्वाद का वहाँ ना मिलना हो,<br />
चाहें सुलाकी लाल की लस्सी के जलवों की तड़प हो,चाहें लखनऊ के सलीक़े से दामन छूट जाने<br />
<span style="line-height: 1.4;">की कसक हो,चाहें बनारस के पान से लबो की हो गयी दूरियां हों या फिर नानक, चिश्ती,ग़ालिब </span><br />
<span style="line-height: 1.4;">और तुलसी की ज़मीन से अलग होने का दर्द हो ..:--------</span><br />
<br />
<strong>ज़मीने -नानक-ओ-चिश्ती,ज़बाने -ग़ालिब-ओ-तुलसी</strong><br />
<strong>ये सब कुछ पास था अपने ये सारा छोड़ आये हैं</strong><br />
<strong><br />
</strong> "मुहाजिरनामा" में मुनव्वर राना हर मिसरे में ये सन्देश देते नज़र आते हैं कि एक आँगन के जब<br />
दो आँगन हो जाते हैं तो घर की दीवारें तक कराह उठती है। जहां बचपन और जवानी गुज़री हो<br />
उस माटी से जुदा होना कोई खेल नहीं है। हिन्दुस्तान के इतिहास की सबसे बड़ी अगर कोई<br />
त्रासदी है तो वो है मुल्क का बँटवारा। बंटवारे के बाद सरमायेदार और ज़मींदार से मुहाजिर हो<br />
गए लोगों के अन्दर की दबी और सहमी आवाज़ का नाम है "मुहाजिरनामा"। "मुहाजिरनामा" के<br />
और भी बहुत से शे'र मैं आप के मुख़ातिब रखना चाहता था मगर आप "मुहाजिरनामा" पढ़ें तो<br />
आप एक अजीब सी पीड़ा से ख़ुद रु- ब -रु होंगे। जिसने विभाजन का ज़िक्र सिर्फ किताबों और<br />
किस्सों में सुना है उनके लिए ये किताब एक अनमोल तोहफ़ा है। "मुहाजिरनामा " एक किताब<br />
नहीं बल्कि एक धरोहर के रूप में सहेज के रखे जाने वाला ग्रन्थ है।<br />
परवरदिगार से यही दुआ करता हूँ कि मुस्तक़बिल ( भविष्य ) में हमें कोई और बँटवारा न देखना<br />
पड़े और आख़िर में "मुहाजिरनामा" के इन्ही मिसरों के साथ इजाज़त चाहता हूँ<br />
......ख़ुदा हाफ़िज़<br />
<br />
<strong>अगर लिखने पे आ जाएँ सियाही ख़त्म हो जाए</strong><br />
<strong>कि तेरे पास आये हैं तो क्या -क्या छोड़ आये हैं</strong><br />
........<br />
<br />
<br />
प्रेषिका<br />
गीता पंडित<br />
<br />
<br />
विजेंद्र शर्मा<br />
<a href="mailto:vijendra.vijen@gmail.com" style="color: #757575; text-decoration: none;">vijendra.vijen@gmail.com</a><br />
सीमा सुरक्षा बल परिसर,<br />
बीकानेर<br />
9414094122</div>
<span style="font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px;"><br />
</span></div>
गीता पंडितhttp://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1043937417958072593.post-36363901847795012982012-07-29T11:28:00.000-07:002012-07-29T11:28:59.188-07:00जब तक बढ़े न पाँव... एक गीत ,,,,, -मुकुट बिहारी सरोज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="line-height: 13px;"><b>...</b></span></span><br />
<b><span style="font-size: x-small;">........</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;">जब तक कसी न कमर,तभी तक कठिनाई है</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;">वरना,काम कौनसा है, जो किया न जाए</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;" /><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;"><br />
जिसने चाहा पी डाले सागर के सागर<br />
जिसने चाहा घर बुलवाये चाँद-सितारे<br />
कहने वाले तो कहते हैं बात यहाँ तक<br />
मौत मर गई थी जीवन के डर के मारे<br />
<br />
जब तक खुले न पलक,तभी तक कजराई है<br />
वराना, तम की क्या बिसात,जो पिया न जाए<br />
<br />
तुम चाहो सब हो जाये बैठे ही बैठे<br />
सो तो सम्भव नहीं भले कुछ शर्त लगा दो<br />
बिना बहे पाई हो जिसने पार आज तक<br />
एक आदभी भी कोई ऐसा बता दो<br />
<br />
जब तक खुले न पाल,तभी तक गहराई है<br />
वरना,वे मौसम क्या,जिनमें जिया न जाए<br />
<br />
यह माना तुम एक अकेले,शूल हजारों<br />
घटती नज़र नहीं आती मंजिल की दूरी<br />
लेकिन पस्त करो मत अपने स्वस्थ हौसले<br />
समय भेजता ही होगा जय की मंजूरी<br />
<br />
जब तक बढ़े न पाँव,तभी तक ऊँचाई है<br />
वराना,शिखर कौन सा है,जो छिया न जाए</span> </b><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;"><b><br />
</b></span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 12.800000190734863px; line-height: 13.600000381469727px;"><b><br />
</b></span><br />
<span style="color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="line-height: 13px;"><b>प्रेषिका </b></span></span><br />
<span style="color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="line-height: 13px;"><b><br />
</b></span></span><br />
<span style="color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="line-height: 13px;"><b>गीता पंडित </b></span></span></div>गीता पंडितhttp://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1043937417958072593.post-28477472994678025962011-11-01T20:01:00.000-07:002011-11-01T20:01:49.251-07:00सब लोग जानते हैं संगीत गा रहा हूँ... तुकाराम वर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<b>....</b><br />
<b>.......</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>बहते हुए पवन के ,विपरीत जा रहा हूँ | </b><br />
<b>सब लोग जानते हैं, संगीत गा रहा हूँ || </b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>अनुभव मुझे हुआ है, हर वस्तु की कमी का| </b><br />
<b>कारण समझ चुका हूँ, संतप्त आदमी का|| </b><br />
<b>जलती हुई अवनि पर,सुख-शांति ला रहा हूँ| </b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>विध्वंस की कथा का, सारांश जानता हूँ | </b><br />
<b>सब कुछ सही न मित्रों, अधिकांश जानता हूँ|| </b><br />
<b>आज़ाद राष्ट्र में भी, भयभीत -सा रहा हूँ | </b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>धनशक्ति की प्रगति के,सारे पते-ठिकाने | </b><br />
<b>सबको विदित हुए हैं, सम्बन्ध नव-पुराने || </b><br />
<b>खुलकर दुखी जनों से, नित प्यार पा रहा हूँ| </b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>कल के लिए जरूरी, आधार धर रहा हूँ | </b><br />
<b>सम्पूर्ण व्याधियों का, उपचार कर रहा हूँ|| </b><br />
<b>पोषक प्रवल समर्थक, सद्नीति का रहा हूँ | </b><br />
<b>सब लोग जानते हैं, संगीत गा रहा हूँ || </b><br />
<b><br />
</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>प्रेषिका</b><br />
<b>गीता पंडित </b><br />
<br />
</div>गीता पंडितhttp://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1043937417958072593.post-86394759371703673642011-10-26T03:01:00.000-07:002011-10-26T03:01:07.116-07:00आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ... हरिवंश राय बच्चन .<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"><b>...</b></div><div style="text-align: left;"><b>.....</b></div><div style="text-align: left;"><b><br />
</b></div><div style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" style="background-color: white; font-family: Tahoma, Verdana, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22px;"><b></b></span></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,<br />
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;<br />
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,<br />
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;<br />
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको,<br />
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;<br />
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,<br />
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;<br />
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ||</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b>सभार ( कविता कोष )</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b><br />
</b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b>प्रेषिका </b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b>गीता पंडित </b></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><b>शुभ - दीपावली </b></div></div>गीता पंडितhttp://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1043937417958072593.post-26397113475595492172011-10-20T23:49:00.000-07:002011-10-20T23:49:43.669-07:00जलाओ दिए पर.... गोपालदास नीरज .<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" style="background-color: white; font-family: Tahoma, Verdana, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22px;"></span></div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;">....<br />
.........<br />
<br />
<br />
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना<br />
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।</div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><br />
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,<br />
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,<br />
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,<br />
निशा की गली में तिमिर राह भूले,<br />
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,<br />
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए</div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;"><br />
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना<br />
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।<br />
<br />
</div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;">सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,<br />
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,<br />
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,<br />
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,<br />
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,<br />
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए<br />
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना<br />
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।<br />
<br />
</div><div style="margin-bottom: 0.9em; margin-top: 0.5em;">मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,<br />
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,<br />
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,<br />
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,<br />
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,<br />
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए<br />
<br />
<br />
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना<br />
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।</div></div>गीता पंडितhttp://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.com7