Thursday, October 20, 2011

जलाओ दिए पर.... गोपालदास नीरज .

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जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

7 comments:

  1. बचपन की गलियों में जिन्हें मैंने
    सुना
    सराहा और
    गुनगुनाया
    आज उनका ( नीरज जी )एक गीत मेरी पसंद का...

    नमन के साथ ..

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  2. फेसबुक

    Prabhat Ranjan

    जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
    अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

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  3. फेसबुक

    Karim Pathan 'Anmol'

    स्वपन झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
    लुट गये सिंगार सभी,
    बाग के बबूल से।
    और हम खङे खङे बहार देखते रहे।
    कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।।
    -नीरज

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  4. फेसबुक

    Karim Pathan 'Anmol'
    गीता जी,
    नीरज बहुत बेहतरीन लिखते हैं।

    वैसे मैंने उन्हें बहुत ज्यादा नहीं पढा
    मगर उनके लेखन में एक अजीब सा आकर्षण है।

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  5. एक चाँद के बग़ैर सारी रात स्याह है,
    एक फूल के बिना चमन सभी तबाह है,
    ज़िंदगी तो ख़ुद ही एक आह है कराह है,
    प्यार भी न जो मिले तो जीना फिर गुनाह है,

    धूल के पवित्र नेत्र-नीर से,
    आदमी के दर्द, दाह, पीर से,
    जो घृणा करे उसे बिसार दो,
    प्यार करे उस पै दिल निसार दो,
    आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
    दुलार दो।
    रोते हुए आँसुओं की आरती उतार दो॥

    .गोपालदास नीरज .

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  6. पर ठहर वे जो वहाँ लेटे हैं फुट-पाथों पर
    सर पै पानी की हरेक बूँद को लेने के लिये
    उगते सूरज की नयी आरती करने के लिये
    और लेखों को नयी सुर्खियाँ देने के लिए।

    और वह, झोपड़ी छत जिसकी स्वयं है आकाश
    पास जिसके कि खुशी आते शर्म खाती है
    गीले आँचल ही सुखाते जहाँ ढलती है धूप
    छाते छप्पर ही जहाँ जिन्दगी सो जाती है।

    पहले इन सबके लिए एक इमारत गढ़लूँ
    फिर तेरी साँवली अलकों के सपन देखूँगा
    पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूँ
    फिर तेरे भाल पे चन्दा की किरण देखूँगा। ... गोपालदास नीरज

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  7. अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
    जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

    जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
    फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

    आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
    कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।

    प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
    हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

    मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
    मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।

    जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
    मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए।

    गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
    ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

    गोपालदास नीरज

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