Wednesday, October 26, 2011

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ... हरिवंश राय बच्चन .

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है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,

रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,

आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,

स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।

कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,

किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ  ||

सभार ( कविता कोष )

प्रेषिका 
गीता पंडित 
शुभ - दीपावली 

Thursday, October 20, 2011

जलाओ दिए पर.... गोपालदास नीरज .

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जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।